शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

देश की शिक्षा व्यवस्था

मैं काबिल-ए-तारीफ
देश की शिक्षा व्यवस्था हूँ
मैं भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबा
शिक्षा के नाम पर मजाक हूं
कुव्यवस्था में लिपटा
कुम्हार के चाक का माटी हूं मैं

अपंग अपाहिज
टूटी हुई बैसाखियों के सहारे
लंगड़ाता घिसटाता
नित्य नया समाचार हूं मैं

कदाचार का जमावड़ा
गंदी राजनीति का शिकार
धोखाधड़ी का अखाड़ा हूं मैं

मध्याह्म भोजन के नाम पर लुट हूं
सरकारी राशियों की
खसोट हूं मैं
शिक्षा का दुष्प्रचार हूं
बच्चों की आंखो में
झोंका जाने वाला
धूल हूं मैं
दाल में गिरी छिपकली तथा
भात में रेंगता
सफेद कीड़ा हूं मैं

शान से
लहराता बलखाता
खुशी खुशी
फलता फूलता
देश की शिक्षा व्यवस्था हूं मैं
                             @पंकज कुमार साह

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

गुलाम खून

कल चौराहे पर
खून देखा
पता नहीं किसका था
ना तो नाम लिखा था
और ना ही जात
मैं चुपचाप चलता बना
अपने गंतव्य को
गाहे बगाहे
कौन उलझे इस खून से
वर्षों पहले
सुभाष जी उलझ पड़े थे
मांगे फिर रहे थे लोगों से खून
लेकिन खुद का खून
कहां बिखरा
किसी को पता नहीं
अब तक
बुद्धिजिवियों के शोध का विषय है
निष्कर्ष
हम आजाद हो गए
हिंद हिन्दुस्तान भारत हो गया
फौज
आज सीमाओं पर खड़े होकर
सर कटा रही है
सब कुछ ठीक हुआ बस
हमारा खून गुलाम हो गया
जब जिसने चाहा चूसा
मन भर जाने पर
हमारे मुंह पर थूका,,,
                    @पंकज कुमार साह

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

चलो एक बार फिर

आज फिर
गंगा निढाल हो पड़ी है
चलो एक बार फिर
रौंद आएं उसे

चलो एक बार फिर
अपने साफ सुथरे तन को
धो आएं गंगा में
उस गंगा में
जिसके किनारे अभी अभी
एक जिन्दा लाश जलायी गई है
मल मूत्र
थूक खखार
बहायी गयी है

चलो अपने मन को
थोड़ा साफ कर आएं
निर्मल कर आएं
और
गंगा को थोडा़ और
दुषित कर आएं
और जाते जाते अंत में
गंगा मइया की जय
बोल आएं,,,,, 

गांव की लड़की बनाम शहरी लड़की



गांव की लड़की
इतर होती हैं
शहरी लड़कियों से

गांव की लड़की
थोड़ी बेवकूफ और नासमझ होती हैं
इन्हें कोई बहला नहीं सकता
शहर की लड़की
होशियार और टैलेंटेड होती हैं
इन्हे कोई भी समझा सकता है
और ये किसी को भी समझ सकती हैं

गांव की लड़की
स्कूल, ट्युशन से लौटती हैं तो
गाय गोबर से लेकर
चुल्हा चौका तक से
फिर से ट्युशन लेती हैं और
उपस्थिति दर्ज कराती हैं

शहर की लड़की
ट्यूशन से नही लौटती
लौटती है 
पिज्जा बर्गर की थैली के साथ
एक नये फिल्म के टिकट के साथ
अपनी नयी सहेलियों के साथ
जो बात बात पर
अनायास ही ठिठियाती है,

गांव की लड़की
ठिठियाती नही
खिसियाती हैं बेहुदा मजाक पर
गांव की लड़की की तबियत खराब हो जाती है महीने में एक बार
शहर में एेसा नहीं होता
वो चिल्लाती हैं
मम्मी पैड कहां रख दी

गांव की लड़की को
भगवान बचाए रखते हैं 
ठेस लगने पर भी
हे ! भगवान ही
निकलता है मुख से

शहर की लड़की
स्ववाबलंबी होती हैं
अपने पैरों पर खड़ी होती हैं
इसलिए बात बे बात
माय फुट, माय फुट
कहती हैं,,

एक बात कह दूं
भ्रम न पालें
गांव और शहर की लड़की के बारे में
वास्तव में
बहुत आगे होती हैं 
शहर की लड़की
गांव की लड़की से
बहुत आगे,,,,, 
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शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

लकीरें

मैं
कविताएं नहीं लिखता
सिर्फ
लकीरें खींचता हूं,,
जो समानांतर होती हैं
सामाजिक उत्थान के
सिर्फ लकीरें,
जो बेरोजगार और बेरोजगारी के माथे पर
खींची होती है
उनके चेहरे पर उभरी सिकन को भी मैं
सिर्फ लकीरें ही बताता हूं
याद दिला दूं
ये वो लकीरें नही
जो किसी साँप के गुजरने के बाद बनी हो
किसी टाटा बिड़ला के हाथों पर बनी हो
किसी सहोदर के आंगन बीच खींची हो
ये लकीरें
सरहद पर डटे जवानों के हाथों का है
अंतड़ी में पेट सटाए मजदुरी करते हाथों का है
नित्य नए आयाम रचते हाथों का है,,,,

पत्थर

पत्थर का पत्थर होना
दुनिया मे
 सबसे जिद्दी होना साबित करता है
भले ही आप उसके
कितने ही टुकड़े कर दो
वह अपनी अकड़ नहीं छोड़ता
पत्थर ही रहता है,,, 

गांव और शहर

एक शहर
कई गांव हो सकते हैं
लेकिन एक गांव
शहर नहीं हो सकता
गांव में
संस्कृत है
संस्कृति है
शहर सुशोभित है सज्जनों से,
गांव में
भूखे नंगे हैं
लेकिन कहीं बेहतर हैं
शहरी नंगो से...